Friday, July 11, 2014

घरौंदे का राशन

बात दरअसल कुछ ही दिनों पहले की है।  जहानाबाद PMRDF, आनंद , के साथ मैं जहानाबाद के एक गाँव में गया था। महादलित टोलों में एक सर्वे करवाना था उस दिन के लिए मैं भी उसका हिस्सा हो लिया। एक महादलित टोले से हमने शुरुवात की।
दोपहर थी, और धीमी बारिश हो रही थी। रास्ते के दोनों तरफ परती जमीन पर घास की चादर बिछी हुई थी।एक तालाब, छोटा सा गड्ढा कह लीजिये उसे, में कुछ हाफ पैंट और कुछ बिना पैंट पहने बच्चे छलांग लगा रहे थे। हर छलांग के साथ वो अजीब आवाजें निकल रहे थें
सड़क के गड्ढों में कीचड़ भर गया था और रास्ते से तेजी में गुजरते हर मोटरसाइकिल और चरपहिये गाड़ी से हम और हमारी पतलून खौफ खाए हुयी थी।
बातें करते हम जैसे ही टोले के करीब पहुंचे, एक नीम के पेड़ के नीचे एक बच्चा दिख गया। एक हरी-पीली लम्बी टीशर्ट, जो उसके शर्ट और पैंट दोनों का काम कर रही थी, पहने हुए और सुखी रोटी को गोल लपेट, चोंगा बना कर वह खा रहा था।
बगल में उसी टोले के कुछ लोग भी खड़े थे। आनंद उनसे बातें करने लगा। मैंने कुछ देर उनकी बातें सुनी और फिर बच्चे की ओर देखा। वो रोटी का बड़ा से बड़ा निवाला काटने में व्यस्त था। मैं घुटने के सहारे बैठ गया और उसके कंधे पर हाथों को रख, उसे देख मुस्कुराया, इक उम्मीद के साथ कि वो भी मुस्कुराएगा। पर ऐसा हुआ नहीं।
फिर मैंने उससे पूछा "क्या नाम है तुम्हारा?"
कोई जवाब नहीं आया।
गाँवों में अगर आप किसी बच्चे से सवाल पूछ रहे हैं तो उनके पडोसी आपका सहयोग करने में भरपूर आनंद लेंगे। “बोल्ही ना रे, की नाम छेको!” बगल में खड़े एक आदमी ने कहा।
"पर ताप"
बोलते वक़्त उसने भौवें सिकोड़ ली और पैरों को पीछे कर लिया। अपनी रोटी नीचे कर ली और मुझे देखते रहा। सब का ध्यान इधर खिंच गया।
" प्रताप। स्कूल क्यों नहीं गए आज?"
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"हम नहीं डांटेंगे तुम्हे,  बताओ क्यों नहीं गए स्कूल?"
प्रताप के चेहरे के भाव बदल गया था। रोटी पर से उसका ध्यान हट गया और वो चुपचाप सुनता रहा। मुझे लगा कि शायद वह स्कूल के नाम से डर गया था। मैंने प्यार से धीरे धीरे उसे अपनी ओर खिंचा और बोला "बेटा, क्यों नहीं गए स्कूल आज?"
वह चुप रहा।
धीरे-धीरे उसका चेहरा सिकुड़ा और उसकी आँखों से आंसुओं की धार बह पड़ी। अपने हांथों से रोटी छोड़ दी।
‘प्रताप इतना कैसे डर गया स्कूल जाने के नाम से।’ मैं सोचता रहा। ‘स्कूल से जुडा शायद कोई बुरा अनुभव रहा होगा।’ मैं समझ नहीं पाया उसके मन के अन्दर घुमड़ रहे विचारों को। मैंने उसको अपने और करीब कर लिया और उसके पीठ सहलाये, पर उसके आंसू रुके नहीं। जैसे ही थोड़े सूखते, एक गहरी सिसकी के साथ वो दुबारा बहने लगते।
आनंद ने अपने मोबाइल कैमरा को ऑन कर बोला "आंसू पोछो, नहीं तो फोटो ख़राब हो जाएगा।"
फोटो की बात सुनकर, प्रताप ने आंसुओं को पोछने की कोशिश की और धीरे-धीरे चुप हो गया। एक-आध सिसकियाँ उसे बीच में आ कर सिहरा जातीं। उसकी रोटी का टुकड़ा मैंने उसके हाथ में वापिस रख दिया। बगल वाले लोग उसे रोते देख हँसते रहे।
बारिश थम गयी थी। हम आगे की तरफ बढ़ टोले में प्रवेश हो लिए, और प्रताप दूसरी ओर चल पड़ा।
"तुम्हें क्या लगता है, वो बच्चा क्यों रोने लगा?" आनंद ने मुझसे पूछा।
“स्कूल जाने के नाम से डर गया होगा शायद।” अपने बचपन के अनुभवों को याद कर मैंने कहा।
"सरकारी स्कूल वाले इतना ख्याल नहीं रखते, आजकल। ऐसा मेरे साथ पहले भी एक दो दफा हुआ है, एक दिन मैंने एक बच्चे से यही चीज़ पूछी। बच्चा अचंभित हो गया। ही वाज शॉकड। पर हमारे केरल में ऐसा नहीं होता।"
"मतलब !", मैंने कहा।
"तुमने देखा बच्चा कितना आश्चर्य से भर गया था जब तुमने उससे बात करनी शुरू की? और तुमने ज्यादा प्यार जताया वो उतना रोने लगा। शायद उसके जिंदगी में पहली बार किसी ने उससे प्यार से बात की होगी।”
“हम्म्म्म।..नहीं कह सकते।”
“देखो ये इसलिए हुआ कि बच्चों से कोई यहाँ प्यार से पेश नहीं आता। लगभग हर इन घरों में पति पत्नी दोनों मजदूरी करने जाते हैं और घरवालों के घर की असफलताओं की पीड़ा अंत में बच्चों तक पहुचती हैं। इन घरों को देखो, हर मौसम में परेशानी है यहाँ।” आनंद बोलता रहा। “गर्मी में फूस की छत में आग लगने का डर। बरसात में मिट्टी पिघल कर घर की दीवार गिरने की चिंता। कड़ाके की ठण्ड में जरुरत भर कम्बल ना होने की चिंता।”
 “माँ को अगले दिन के अनाज की चिंता, घर टूट जाएगा उसकी चिंता, घर की बकरी कोई खोल ले जायेगा उसकी चिंता, साहूकार का कर्जा आसमान छू रहा है, उसकी चिंता, पति शाम को दारु पी जाता है आधे पैसे की उसकी चिंता, बेटी अब नौ साल की हो गयी, उसकी अगले साल शादी करनी है उसकी चिंता.............."
“छपाक!”तभी बगल से एक मोटरसाइकिल गुजरी और हमारी पतलून थोडी रंगीन हो गयी।
"पिता जब प्रतिदिन काम पर जाने और ठेकेदार की गालियाँ खाने के बाद जब वह शाम को वापिस आता है तो पूरी हिम्मत लगा वह वक़्त को थाम लेना चाहता है, कि वक़्त रुक जाए। कहीं वह सफ़ेद डाईन सुबह ना आ जाए और फिर से किसी और ठेकेदार से गाली खानी पड़े।  पर सुबह होती है। और वह उसे ठेकेदार के पास जाना होता है। "
“हम्मम्मम्म”
“अब ये लोग जिनका दिल हजारों समस्याओं से हर पल निबट रहा है, उनके बच्चों के लिए प्यार एक लक्ज़री है। घरवाले इन बच्चे पर ही अपनी सारी असफलताओं का ठीकरा फोड़ते हैं और तमाचे जड़ते रहते हैं। यहाँ का हर बच्चा साल भर में कम से कम 300 चमाटे तो लगभग खा ही लेता है। माता पिता के अलावा उसके चाचा-चाची, बुआ-फूफा, ताऊ-ताई, पडोसी, बुजुर्ग सब लोग इस नेक 300 के लक्ष्य प्राप्ति में सहयोग करते हैं।”
“ह्म्म्मम्म”, मुझे अपने तमाचे खाने वाले दिन याद आ गए। मैंने कहा “गरीबी से इसका तालुल्क थोडा हो सकता है पर यहाँ तो हर घर की यही कहानी है। बड़ों के पुरुषार्थ सिद्ध करने का सबसे बड़ा यन्त्र है ‘चाटा मारना’। ‘चाटा मारने वाले’ लोगों को यहाँ सेलेब्रिटी स्टेटस् दिया जाता है, खूब इज्जत रहती है उनकी बड़ों के बीच। एक बच्चे ने शरारत की और लोग शुरू, “शम्भू चचा आ रहे हैं। वही खबर लेंगे।” ‘शम्भू चचा’ चाटा मारने के इस ओलिंपिक के गोल्ड मेडलिस्ट हैं।”
आनंद हंसा और बोला “मेरे अनुभव कहते हैं कि ये नार्थ इंडिया के काफी स्टेट्स में है। पर केरल में ऐसा बहुत कम होता है। कोई परिवार भले ही गरीब हो, भले ही आदिवासी हो, पर बच्चों को प्यार मिलता है। बच्चों को नहीं पीटा जाता है, अगर उन्हें मारते भी हैं, तो घुटने के नीचे छड़ी से मारते हैं। और चाटा मारना तो वहां अपमानजनक है। मैं केरल के एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ और मेरे कई दोस्त भी हैं जो वहां के समाज के और भी पिछड़े हिस्से से हैं पर मैंने और मेरे किसी दोस्त ने आजतक चाटा नहीं खाया।”




मैंने अपने उतर भारतीय होने पर एक बार फिर निम्न महसूस किया और मुझे वो हजारों चाटें याद आ गयीं जो बचपन में खायीं थी। कुल 1000 से कम क्या खायी होंगी? और यही हाल हमारे कई मित्रों का भी है। 15 साल की उम्र होने के बाद तक कई लोगों ने चाटें खायीं हैं। एक पल के लिए तो मन हुआ कि घरवालों और पड़ोसियों से बचपन के सारे हिसाब चुकता कर आऊं।
“हे हे हे हे..... आनंद, यहाँ उन बच्चों की भी इज्ज़त बढती है जो चाटा खाते हैं। जितने ज्यादा चाटें, उतनी ज्यादा इज्ज़त। कई घरों में बच्चों का राशन लगभग तय रहता है: ५ चाटें प्रति सप्ताह। अगर ज्यादा दिन हो जाए तो घर के ‘शम्भू चाचा’ कहेंगे “बहुत दिन हो गए तुम्हारी पिटाई किये हुए, ठीक से रहो।” और बच्चा सहम जाएगा।”
“हा हा हा”
“हा हा हा”
बारिश वापिस आ गयी। और सड़क पर पड़े कीचड़ में ध्यान से हम आगे बढ़ने लगे।
आनंद की नज़र में ‘चाटा मारना’ संस्कृति का हिस्सा बन गया है। कोई समाधान समझ में नहीं आया इस समस्या का। गरीबी का भले ही कोई सीधा सम्बन्ध ना दिखे चाटा मारने से, पर माता-पिता जितने ज्यादा मानसिक तनाव में रहेंगे, बच्चों का बचपन पर उसका उतना ही गलत असर पड़ेगा। अपवादों को छोड़ दें तो यह कहना बिलकुल उपयुक्त होगा कि गरीबी का मानसिक तनाव से सम्बन्ध है और शायद इसलिए ‘बचपन’ भी वहां काटों के बीच पलता है।
हम चलते रहे। आनंद ने तालाब में खेल रहे बच्चों को आवाज़ दी। उन्होंने हाथ हिला कर जवाब दिया।
समाज का एक बड़ा हिस्सा बहुतेरे गलतफहमियों में जीता है। उनमे एक यह भी है कि बच्चे के बड़े होने पर उन्हें ये चीज़ें याद नहीं रहेंगी। पर बच्चे न्यायाधीशों की तरह गलतियों पर विचार कर धारणा बनाते हैं और अपने मन की अदालत में सजा सुनाये रखते हैं।
प्रताप क्यों रो पड़ा इस बात का जवाब शायद उसी के पास है, पर हाँ उसने बचपन में प्यार की जरुरत पर हमारा अच्छा ध्यान खींच लिया।
पता नहीं क्या सजा सुनाई होगी, उसने हमें? अगली बार जब उससे मिलूँगा, तो एक टॉफ़ी के साथ। 
और हाँ, बिना सवालों के। 


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